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कविता

ओ वासंती पवन

प्रदीप शुक्ल


आओ सारा गाँव
तुम्हारी राह तक रहा
ओ वासंती पवन! तुम्हारा ध्यान किधर है

धूप मुंडेरे पर बैठी
कुछ सहमी सकुचाई
पंख फुलाकर गौरैय्या
आँगन में फिर आई
पुरवाई में अभी
जरा सा है तीखापन
और सबेरे की आँखों में थोड़ा डर है

वस्त्र उतारे पेंड़ों ने
सब हुए दिगंबर से
ओस बुनी झीनी चादर
आई है अंबर से
नए पात के गात
अभी बस झाँक रहे हैं
कानन का सब रंग अभी तक धूसर है

पीलेपन के धब्बे से
कुछ हैं सिवान में
आग अभी बस सुलगी है
टेसू वन में
कामदेव के बाण
निकालो तूणीरों से
आ जाओ अल्हड़ बसंत खाली घर है

आओ सारा गाँव
तुम्हारी राह तक रहा
ओ वासंती पवन! तुम्हारा ध्यान किधर है।
 


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